सोमवार को देश के सुप्रीम कोर्ट ने जब दिल्ली में 1 नवंबर तक पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया तो देश के बड़े वर्ग खासतौर से दक्षिणपंथी वर्ग आक्रोश से भर गया है सुप्रीम कोर्ट ने इसके पीछे दिल्ली में वायु प्रदूषण के खतरे को तर्क दिया है अब सवाल यह है कि अगर वायु प्रदूषण ही प्रतिबंध का पैमाना है तो वह 1 नवंबर तक ही क्यों साल के 365 दिन क्यों नहीं और क्या क्रिसमस और शादी के मौके पर फोड़े गए पटाखे ऑक्सीजन रिलीज करते हैं यहां पर लोगों का यह तर्क कि जल्लीकट्टू में बैल के साथ कुश्ती हो या दही हांडी की ऊंचाई तय करना हो हर बार सुप्रीम कोर्ट को हिंदू संस्कृति में हस्तक्षेप करना ही क्यों पसंद आता है बकरी ईद पर बलि भी तो जानवरों के साथ निर्ममता का ही एक जीवंत उदाहरण है मशहूर लेखक चेतन भगत के अनुसार दिवाली का प्रदूषण पूरे साल का सिर्फ 0.27 प्रतिशत होता है फिर भी न्यायपालिका को हिंदू संस्कृति के साथ चयनात्मक तरीके से निशाने पर लेना कई सवाल खड़े कर देता है सोशल मीडिया पर लोग इस बात को लेकर भी गुस्से में हैं कि देश के तथाकथित लिबरल और बुद्धिजीवी समाज होली पर पानी बचाने और दिवाली पर ग्रीन दिवाली से लेकर करवा चौथ को रुढ़ीवादी और जल्लीकट्टू को जानवरों पर निर्दयता बताने के लिए मुंह खुले बैठे रहते हैं मगर यही लोग रमजान के रोजे को पवित्र मुहर्रम को रिवाज और यहां तक कि बकरीद पर दी जाने वाली बली को भी जायज ठहराने से नहीं चूकते
तथाकथित सेकुलरों के पाखंड का ही एक उदाहरण यह भी है कि उन्हें उत्तर प्रदेश के अवैध बूचड़खाने बंद होने पर बेरोजगार हुए लोग तो दिख जाते हैं मगर पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन करने के बाद लाइसेंस से पटाखा व्यापार चला रहे लोगों के धंधे और वहां काम कर रहे मजदूरों की रोजी रोटी के सवाल पर वह हमेशा की तरह अपनी आंखें मूंद लेते हैं ।
शायद अब समय आ गया कि सरकार तथा न्यायपालिका आत्ममंथन करें क्योंकि इस तरह हर बार एक खास विचारधारा पर आघात लोगों के आक्रोश को सोशल मीडिया से सड़क पर ले आया तो उसके परिणाम भयावह हो सकते हैं ।
तथाकथित सेकुलरों के पाखंड का ही एक उदाहरण यह भी है कि उन्हें उत्तर प्रदेश के अवैध बूचड़खाने बंद होने पर बेरोजगार हुए लोग तो दिख जाते हैं मगर पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन करने के बाद लाइसेंस से पटाखा व्यापार चला रहे लोगों के धंधे और वहां काम कर रहे मजदूरों की रोजी रोटी के सवाल पर वह हमेशा की तरह अपनी आंखें मूंद लेते हैं ।
शायद अब समय आ गया कि सरकार तथा न्यायपालिका आत्ममंथन करें क्योंकि इस तरह हर बार एक खास विचारधारा पर आघात लोगों के आक्रोश को सोशल मीडिया से सड़क पर ले आया तो उसके परिणाम भयावह हो सकते हैं ।